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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

मैं पात-पात...


सविता का हृदय धक् से रह गया। उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उस फ़ोन की उपेक्षा करना इतना हृदय-विदारक हो जाएगा। आगरा-भ्रमण के लोभ में कितना भारी अनर्थ कर लिया था उसने। क्या इस शूल का घाव कभी भर पाएगा?

पीड़ा के अतिरेक में उसने होंठों को कसकर भींच लिया।

तीन दिन हो गए। रायपुर से मेघा दीदी, जीजाजी व बच्चे आए थे। वे आगरा घूमने जा रहे थे। उनके संग सविता का परिवार भी जाने वाला था। ट्रेन का समय हो गया था। मनोज रिक्शा लेने स्टैंड तक गए थे। तभी फ़ोन की घंटी बजी। दीदी से बतियाते हुए सविता ने फ़ोन उठाया। बातों का क्रम तोड़ उसने ज्यों ही 'हलो' कहा, देवर की बदहवास आवाज़ सुन चौंक पड़ी। सुबोध बेहद घबराया हुआ था। रह-रहकर उसकी आवाज़ हकला रही थी, ''...हलो, हलो...कौन....भैया? मैं टकलपुर से सुबो ध...वो...वो क्या हुआ...पिताजी आज सुबह जा रहे थे...म...मोटरसाइकिल से...''

सुनते ही सविता की त्यौरियाँ चढ़ गईं। उसके ससुर को भी आज का ही दिन मिला एक्सीडेंट करने के लिए? निर्णय लेने में उसने एक पल का भी विलंब नहीं किया। सुबोध आगे कुछ बोल पाता, वह जोर से चिल्लाई, ''...हलो कौन? उफ़, आवाज़ ही नहीं आ रही! यह फ़ोन हर वक्त खराब पड़ा रहता है, खट-खट-खट...'' एक साँस में भन्ना उसने तीन-चार बार बटन दबाए और फ़ोन कट गया।

''अरे!'' पास खड़ी मेघा आश्चर्य से उसे घूरने लगी, ''आवाज़ तो आ रही थी?''

''शी-ई-ई-ई!'' होंठों पर उँगली रख सविता ने बाहर सड़क की तरफ चौकन्नी निगाहों से देखा, ''मेरे ससुर ने एक्सीडेंट कर लिया है। टकलपुर से देवर की एस.टी.डी. थी।''

''फिर?'' आशंका से मेघा का हृदय बैठ गया, ''...कार्यक्रम रद्द करना पड़ेगा?''

''इसी वास्ते तो!'' उसकी निगाहें अब भी बाहर लगी थीं, ''...बड़ी मुश्किल से तो कार्यक्रम बना था। जीजाजी भी बार-बार छुट्टी लेकर आने से रहे।''

''मगर...'' मेघा अब भी पशोपेश में थी, ''....अच्छा लगेगा?...गर पता चल गया तो?''

''अरे! उन बुड्ढे-बुढ़िया का तो कुछ-न-कुछ चलता रहता है। कहाँ तक जाएँ हम दौड़-दौड़ कर? मैं कभी जाना पसंद करती नहीं, ये भी हिचकिचाते हैं वहाँ जाने के नाम से। अब जल्दी से लगाओ ताले और चलो...''

तभी घंटी दुबारा बजने लगी। सविता ने चलो (रिसीवर) उठाकर वहीं के वहीं वापस धर दिया। अभी एक मिनट भी नहीं बीता था कि घंटी पुनः बजने लगी। सविता ने पहले की तरह फ़ोन उठाया और धर दिया। उधर रिक्शों की आवाज़ आने लगी थी। सविता-मेघा जल्दी-जल्दी बाहर निकलने लगीं, घंटी चौथी बार बजना आरंभ हुई। सविता चिढ़ गई। यदि घंटी बजती रहती तो मनोज निस्संदेह फ़ोन सुनने अंदर आ जाता? दोनों बहनें खा जाने वाले अंदाज़ में फ़ोन को घूरने लगीं। घंटी बजती जा रही थी। सविता पूर्ववत चोगा उठाकर वापस रख फ़ोन काट देने की इच्छुक थी, मेघा ने हाथ के इशारे से मना किया, ''ऐसा मत करो। तुम्हारे देवर को शक हो जाएगा-तुम जान-बूझकर फ़ोन काट रही हो।''

''फिर क्या करें?...तार खींचकर तोड़ दें?''

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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